भीगा दिन 
पश्चिमी तटों में उतर चुका है, 
बादल ढँकी रात आती है 
धूल-भरी दीपक की लौ पर 
मंद पग धर। 
गीली राहें धीरे-धीरे सूनी होतीं 
जिन पर बोझल पहियों के लंबे निशान हैं 
माथे पर की सोच भरी रेखाओं जैसे। 
पानी-रँगी दिवालों पर 
सूने राही की छाया पड़ती 
पैरों के धीमे स्वर मर जाते हैं 
अनजानी उदास दूरी में। 
सील-भरी फुहार-डूबी चलती पुरवाई 
बिछुड़न की रातों को ठंडी-ठंडी करती 
खोए-खोए लुटे हुए ख़ाली कमरे में 
गूँज रहीं पिछले रंगीन मिलन की यादें 
नींद भरे आलिंगन में चूड़ी की खिसलन 
मीठे अधरों की वे धीमी-धीमी बातें। 
ओले-सी ठंडी बरसात अकेली जाती 
दूर-दूर तक 
भीगी रात घनी होती हैं 
पथ की म्लान लालटेनों पर 
पानी की बूँदें 
लंबी लकीर बन चू चलती हैं 
जिनके बोझल उजियाले के आस-पास 
सिमट-सिमट कर 
सूनापन है गहरा पड़ता। 
—दूर देश का आँसू धुला उदास वह मुखड़ा— 
याद भरा मन खो जाता है 
चलने की दूरी तक आती हुई 
थकी आहट में मिलकर। 

 
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