भीगा दिन (कविता)

भीगा दिन
पश्चिमी तटों में उतर चुका है,
बादल ढँकी रात आती है
धूल-भरी दीपक की लौ पर
मंद पग धर।

गीली राहें धीरे-धीरे सूनी होतीं
जिन पर बोझल पहियों के लंबे निशान हैं
माथे पर की सोच भरी रेखाओं जैसे।

पानी-रँगी दिवालों पर
सूने राही की छाया पड़ती
पैरों के धीमे स्वर मर जाते हैं
अनजानी उदास दूरी में।

सील-भरी फुहार-डूबी चलती पुरवाई
बिछुड़न की रातों को ठंडी-ठंडी करती
खोए-खोए लुटे हुए ख़ाली कमरे में
गूँज रहीं पिछले रंगीन मिलन की यादें
नींद भरे आलिंगन में चूड़ी की खिसलन
मीठे अधरों की वे धीमी-धीमी बातें।

ओले-सी ठंडी बरसात अकेली जाती
दूर-दूर तक
भीगी रात घनी होती हैं
पथ की म्लान लालटेनों पर
पानी की बूँदें
लंबी लकीर बन चू चलती हैं
जिनके बोझल उजियाले के आस-पास
सिमट-सिमट कर
सूनापन है गहरा पड़ता।

—दूर देश का आँसू धुला उदास वह मुखड़ा—
याद भरा मन खो जाता है
चलने की दूरी तक आती हुई
थकी आहट में मिलकर।


यह पृष्ठ 220 बार देखा गया है
×

अगली रचना

बुद्ध


पिछली रचना

आज हैं केसर रंग रँगे वन
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें