सिद्धार्थ के पिता की तरह;
मेरे पिता के पास कोई राजपाट नहीं था,
न मुझमें बुद्ध बनने की कोई इच्छा।
मैंने सिर्फ़ एक घर छोड़ा था
घर में माता-पिता और उनकी आँखों में सपने।
सपनों की ख़ातिर शहर में भटके इधर से उधर,
इस कोचिंग से उस कोचिंग,
गुरू बदले, पढ़ने के तरीक़े बदले।
ख़ुद को काया क्लेश भी दिया।
सुजाता की खीर भी खाई,
वट वृक्ष के नीचे बैठकर बिस्किट भी खाए।
तब जाकर समझ आया कि–
मध्यम मार्ग पर चलकर ही लक्ष्य हासिल होगा।
अब अरहत बनने के बाद घर जाऊँगा
किसी राहुल को लेने नहीं,
बल्कि किसी यशोधरा को लेकर।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें