बुढ़ापा (कविता)

तितर-बितर भई डाली-डाली,
झर गई सगरो पाती,
चौथेपन की राह कठिन है–
कौन जलाए साँझ की बाती।

आँखों में सैलाब उमड़ता
चढ़ता क़दम-क़दम अँधियारा–
धुँधलाई मद क्षणिक जवानी,
व्याकुल मन सहर्ष स्वीकारा।
ठहर-ठहर, दिन पहर की हानि,
असमंजस नित नई पुरानी,
अपनेपन की आग बुझाती,
कौन जलाए साँझ की बाती।

तन तन्हाई में जलता,
सुकून कहाँ, भई ओझल छाँव,
आलय अंत घड़ी की राह,
आत्म समर्पित जर्जर पाँव।
कहाँ मिलूँ, और कौन मिलाए?
मुझसे बिछुड़ा मेरा गाँव–
जैसे सूरज, चाँद की भाँति,
कौन जलाए साँझ की बाती।

बेरंग लगे, रंगीन दिशाएँ,
अवरुद्ध कंठ– क्या गाए गीत,
आशाओं की आभा खण्डित,
समय बताएँ गहरी प्रीत।
भूतकाल की अँगड़ाई है,
परछाई ही परछाई है,
दुर्बलता की देहरी पर
बिसारि गए सब– संग संगाति,
कौन जलाए साँझ की बाती।


रचनाकार : राजेश राजभर
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