चाँद चौरा का मोची (कविता)

चाँद चौरा का मोची
चाँद की टहनी पर अटका है
वह कभी भी गिर सकता है अनंत अमावस्या की रात में

कितनी अजीब बात है कि चाँदनी रात के लिए भी
उसके पास वही औज़ार होते हैं
जिससे वह दिन में लोगों के जूते चमकाता है
सचमुच वह सनकी कलाकार है वह कला की बातें नहीं जानता
वह चमड़े से घिरा रहता है और भूख के पैबंदों को सीता है

मैं जब भी चाँद चौरा की तरफ़ निकलता हूँ
मेरे सामने महाबोधि होता है और पीठ पीछे विष्णुपद मंदिर
इन्हीं के बीच में वह मुझे हमेशा मिलता है मुझसे मेरे जूते माँगते हुए
उसकी आँखें कमज़ोर हो गई हैं, हाथ काँपते हैं
फिर भी वह अपने हुनर की ज़िद पकड़ कर रखता है

कभी-कभी वह अपनी जाति की बात ईमान से कह जाता है
कहता है चाँद-चकोर की बातें हमसे न कहना बाबू
बहुत बदरंग हैं ये, कितने क़िस्से सुनोगे इनके
क्या तुम नहीं जानते शम्बूक के सर के ऊपर आसमान के चाँद को
क्या तुम बेलछी, लक्ष्मणपुर-बाथे नहीं जानते
बहुत भोले मत बनना बाबू
हमको चाँद चौरा में चाँदनी नहीं जूते मिलते हैं

सचमुच सनकी मोची है वह कला नहीं जानता
बात-बात में उसने मेरी जात जान ली है
तिरछे मुस्का कर कहता है तुम तो मेरी बिरादरी के निकले
तुम चाँद की ख़ाल निकालते हो कविता से
और मैं भी एक दिन चाँद के चमड़े का जूता बनाऊँगा।


रचनाकार : अनुज लुगुन
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