चाँद उन आँखों ने देखा और है (ग़ज़ल)

चाँद उन आँखों ने देखा और है,
शहर-ए-दिल पे जगमगाता और है।

लम्स की वो रौशनी भी बुझ गई,
जिस्म के अंदर अंधेरा और है।

ऐ समुंदर रास्ता देना मुझे,
लौह-ए-जाँ पे नाम लिक्खा और है।

वो जो चिड़िया नाचती है शाख़ पर,
उस के अंदर एक चिड़िया और है।

मोड़ पर रुक जाए कि कच्ची सड़क,
साथ चलता है वो रस्ता और है।

हिज्र के साए न तस्वीर-ए-ख़िज़ाँ,
यार उस के घर का रस्ता और है।

तालियों से हॉल सारा भर गया,
जानता हूँ शेर सच्चा और है।


रचनाकार : जयंत परमार
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