चले चलो, बढ़े चलो (कविता)

चले चलो, बढ़े चलो
लड़ो कि बिना लड़े हक़ नहीं मिलता।
उठो कि बिना चले मंज़िल नहीं मिलती।
माँगों कि बिना माँगे कुछ नहीं मिलता।
जागो कि बिना जागे सवेरा नहीं होता।
हो सकता है आपका लड़ना,
किसी के नज़दीक बुरा हो।
मंज़िल पाना किसी को खटक सकता हो।
आपका सवेरा उसका अँधेरा हो सकता हो।
जागना, उठना और लड़कर माँगना अपना हक़,
अपने होने को दर्शाता है।
अपने साथ हुए अन्याय को बतलाता है।
अपने सम्मान का सूचक है।
आत्माभिमान से संबंधित है।
हमें बदजात कहने वालों को,
कमीन संज्ञा देने वालों को,
बहिश्ते ज़ेवर थमाने वालों को
इंसान में इंसान का भेद करने वालों को,
जवाब तो देना होगा।
समय की यही पुकार है,
चले चलो, बढ़े चलो,
अपने लिए, अपनों के लिए
और अपनी अगली पीढ़ी के लिए भी।
ताकि वे जाने,
आपके अमिट इतिहास को।
आपकी कर्मठता और जागरूकता को।
इसलिए बिना थके चलते रहना है।
तभी तो पहुँचा जा सकेगा।
जो दूर, बहुत दूर असंभव है,
जाते-जाते ही संभव हो सकेगा।

डॉ॰ अबू होरैरा - हैदराबाद (तेलंगाना)


लेखन तिथि : जून, 2023
यह पृष्ठ 373 बार देखा गया है
×

अगली रचना

आवश्यकता है लड़ने की


पीछे रचना नहीं है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें