चलिए फिर! कुछ और बात करें (कविता)

ऐसा तो अक्सर ही होता है
कि पहला प्रेम घाव बन जाता है
और दूजा औषध
इस धारणा को मानें तो घाव के साथ ही मिट जाती है
जड़ी-बूटी की भी ज़रूरत

हरे हो जाते घाव ऐसे मौसमों में
जो अब तक सूख चले थे
गाहे-बगाहे तड़कते रहते बिजलियों के साथ ही
जबकि याद में तक नहीं दर्ज रहतीं वो हरी जड़ी-बूटियाँ
जिन पर इन दिनों जंगलों तक से ग़ायब होने का संकट मंडरा रहा है

कुछ लोग नदियों में डुबकी लगाकर
जीवन की पीड़ा इत्यादि से मुक्त हो जाते हैं
कई तो सूखी भी होती हैं नदियाँ
इतनी सूखी कि उनमें कोई नहीं डूबता
ये ख़ुद में ही डूब कर मर जाती हैं

कुछ नदियाँ लोगों को पार लगा देती हैं
कुछ लोग नदियों को पार लगा देते हैं

कई नदियों के नाम ही मिटते जा रहे नक़्शे से
बहुत सी जड़ी-बूटियाँ भी मिट चलीं सूची से
हौले-हौले फूँक कर मिटा दे अस्तित्त्व
प्रेम शायद ऐसे ही किसी इरेज़र का नाम होगा

कोरे काग़ज़ों पर लिखा जाता है चमकते अक्षरों में
नदी किनारे बसी उन गौरवशाली सभ्यताओं का इतिहास
जिसकी नींव
हो न हो! किसी तैराक ने ही रखी होगी

चलिए फिर!
लहलहाती फ़सलों की बात करें
बल खाती लहरों की बात करें
सजी-सँवरी नहरों की बात करें
नए-नवेले फूलों की बात करें
बारिश की, शहरों की बात करें
लिखी हुई बातों की बात करें
मिटी हुई चीज़ों पर इतना क्या सोचना

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मार्स और प्लूटो की बात करें


रचनाकार : बाबुषा कोहली
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