सूरज डूबा और रात हो आई।
जैसे किसी लजीली नई बहू ने घूँघट खींच लिया हो,
चाँदी के बूटों वाला!
और उग आई गोली बड़ी इंदु
तेरे रूप से खिंचकर इतने पास।
मौन,
तेरे रूप की जादू भरी चाँदनी में वह ठमक गई है,
और तेरे सामने फीकी लग रही है।
इधर तू मेरी गोद भरे थी,
और मैं
तेरे ओंठों की अफ़ीम पिए जा रहा था,
उधर वह इंदु
तेरी प्रतिस्पर्धा से
अपना रूप सँवारती रही,
और अब दीप्त हो उठी है।
तेरी प्रतिस्पर्धा में
शाम ही से अपना रूप सँवारती
जो दीप्त हो उठी थी
इस इंदु को निराशा की एक घनी छाँह अब ग्रस रही है
और तेरी तरफ़ आँखें झिलमिलाते
इन तारों की बढ़ती भीड़ ठिठक गई है
मानो मेले के सबसे अचरज-भरे
तमाशे के चारों ओर देखती!
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