हेमंती संध्या है, सूरज जल्दी ही डूबा जाता है—
मन भी आज अकारज चिर-प्रवास से क्यों ऊबा जाता है?
फ़सल कट गई, कहीं गड़रिया बचे-खुचे पशु हाँक रहा है,
सांध्य-क्षितिज पर कोई अंजन, म्लान-गूढ़ छवि आँक रहा है।
बचे-खुचे पंछी भी लौटे, घर का मोह अजब बलमय है,
मानव से प्रकृति की छलना, प्रकृति से मानव छलमय है!
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है।
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