छिन्नमस्ता
जन्मों के निर्वासन में
पीती हुई अपना ही लहू
कोई मानवी तो नहीं ही हो सकती थी
अपने संपूर्ण में अपूर्ण
एकाकी उदास
अपने ही शव के आस-पास
पारदर्शी,
खोले अपनी वासनाओं के नागपाश
ज़रूर भीतर के कोमलतम को मार कर
रह गई थी जघन्यतम डाकिनी
तुम ही तो नहीं थे प्रथम और अंतिम
देने वाले ये संबोधन!
हर रहस्यमय स्त्री को!
बहुत टूटते होंगे भरम
हर कहीं हर बार
हर जन्म में
मेरी कुरजाँ भी डाकिनी ही थी
हरेक के लिए
भाग्य के लेखे पढ़ते
दूसरों के सगुन बाँचते
कर लिए थे इकट्ठे
अपनी क़िस्मत में बहुत से अपसकुन।
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