छोड़ दो, जीवन यों न मलो।
ऐंठ अकड़ उसके पथ से तुम
रथ पर यों न चलो।
वह भी तुम-ऐसा ही सुंदर,
अपने दुख-पथ का प्रवाह खर,
तुम भी अपनी ही डालों पर
फूलो और फलो।
मिला तुम्हें, सच है अपार धन,
पाया कृश उसने कैसा तन!
क्या तुम निर्मल, वही अपावन?—
सोचो भी, सँभलो।
जग के गौरव के सहस्र-दल
दुर्बल नालों ही पर प्रतिपल
खिलते किरणोज्ज्वल चल-अचपल,
सकल-अमंगल खो—
वहीं विकट शत-वर्ष-पुरातन
पीन प्रशाखाएँ फैला घन
अंधकार ही भरता क्षण-क्षण
जन-भय-भावन हो।
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