साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
संकलित रचनाएँ : 3561
अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश
1938 - 2000
हँसते-हँसते होंठों की हँसी छीन लेते हैं लोग देखते-देखते आँखों की रोशनी बोलते-बोलते छीन लेते हैं शब्द बाक़ी रह जाता है एक लंबा इम्तिहान सब कुछ दाँव पर लग जाता है यक-ब-यक शुरू हो जाता है हार का सिलसिला यहाँ तक कि ख़ुद को भी हार जाना पड़ता है एक दिन कहाँ काम आता है ऐसे में कोई बच रहता है केवल रोज़-रोज़ का आत्मघात।
अगली रचना
पिछली रचना
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें