दर-ब-दर सर झुकाए फिरता है (क़ितआ)

दर-ब-दर सर झुकाए फिरता है
आरज़ी इक़्तिदार की ख़ातिर
कितना मजबूर हो के जीता है
आदमी इख़्तियार की ख़ातिर


रचनाकार : वसीम बरेलवी
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मौत के ब'अद भी तो चलता है


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