दर्द (कविता)

दिल के दरवाज़े पर हुई एक दस्तक, किसी के सिसकने की आ रही थी आवाज़,
टटोला अंदर तो पाया मैंने, निकल रहे थे कुछ दर्द भरे अल्फ़ाज़।
मचा हुआ था भावों का घमासान, दिल में चुभ रहे थे तीर,
अल्फ़ाज़ों के इस कोलाहल में, दिल हो रहा था चीर-चीर।

पढ़ रहा था मैं एक दर्द भरी कविता, सिसकती हुई बहा रही थी वह आँसू,
जैसे जैसे पढ़ रहा था आगे मैं, आँखों से निकल रहे थे आँसू।
अपनों का दिया हुआ दर्द दे रहा था दस्तक, ह्रदय पर हो रही थी चोट,
समझ न पा रहा था मैं, कैसे अपने ही अपनों से कर लेते हैं खोट?

कई दिनों से हो रही थी, किसी अपने से अपने की कहासुनी,
ख़ून-पसीना बहाकर बड़ा किया था जिसको, उसकी आँखें हो रही थी ख़ुनी।
जाने किस बात की कमी रह गई, कहाँ ग़लत हो गई परवरिश?
कैसे पनप गई विद्रोह की भावना, दिया था जिसे मन से आशीष?

माता-पिता बड़ा करते हैं बच्चों को, चाहते है वे बने सही इंसान,
बड़ी तकलीफ़ होती है दिल को, जब सहसा वो हो जाते हैं हैवान।
माता-पिता की बताते औक़ात, आँखों से हट जाता शर्म का पानी,
माता-पिता का नहीं करते सम्मान, इन्हे तो भाती अपनी ही कहानी।

किसे दोष दूँ, कैसे दोष दूँ, माता-पिता में ही होंगी कोई कमी,
पिता रहता डरा-डरा इनसे, माँ रहती सदा सहमी सहमी।
दुहाई देतें औरों की, और अपने घर में करते विघटन,
ख़ुद को मानते सदा सही, छिन्न भिन्न करते रहते परिवार का चमन।

पता नहीं इनको अभी, क्यों करते ये ऐसा व्यवहार,
जाने क्या मिलता इन बच्चों को, करके यूँ सबसे दुर्व्यवहार?
रहते ये एकल परिवार में, इनका ही होगा एक दिन अधिकार,
फिर भी हो जाते ये अधीर, लेते रहते अपनों से ही प्रतिकार।

कहता हूँ आज सभी बच्चों से मैं, न करना बड़ो का अपमान,
बड़ों के आशीर्वाद में होती बरकत, रखना सही से इनका सम्मान।
छत होती घर में जब बड़ों की, तभी बनता है एक सार्थक परिवार,
कर्तव्य का करोगे अगर सही प्रयोग, तभी मिलेगा बड़ों से समुचित अधिकार।

करोगे निःस्वार्थ प्यार बड़ो से तो, बड़े भी देंगे तुम्हे अहमियत,
बात-बात पर करोगे रुसवा, तो कैसे होंगी फिर तुम्हारी इज़्ज़त?
बात मेरी यह आज अपना लेना, देना परिवार में बड़ों को सम्मान,
बाँधकर रखोगे परिवार को प्रीत से, तभी गढ़ोगे भविष्य का प्रतिमान।


लेखन तिथि : 1 अप्रैल, 2022
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