दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
है वही इश्क़ की दुनिया मगर आबाद नहीं
ढूँढने को तुझे ओ मेरे न मिलने वाले
वो चला है जिसे अपना भी पता याद नहीं
रूह-ए-बुलबुल ने ख़िज़ाँ बन के उजाड़ा गुलशन
फूल कहते रहे हम फूल हैं सय्याद नहीं
हुस्न से चूक हुई इस की है तारीख़ गवाह
इश्क़ से भूल हुई है ये मुझे याद नहीं
बर्बत-ए-माह पे मिज़राब-ए-फ़ुग़ाँ रख दी थी
मैं ने इक नग़्मा सुनाया था तुम्हें याद नहीं
लाओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-मस्ती में
लोग कहते हैं कि 'साग़र' को ख़ुदा याद नहीं

अगली रचना
गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगेपिछली रचना
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
