मेरा ये ख़्वाब कि तुम मेरे क़रीब आई हो
अपने साए से झिझकती हुई घबराती हुई
अपने एहसास की तहरीक पे शरमाती हुई
अपने क़दमों की भी आवाज़ से कतराती हुई
अपनी साँसों के महकते हुए अंदाज़ लिए
अपनी ख़ामोशी में गहनाए हुए राज़ लिए
अपने होंटों पे इक अंजाम का आग़ाज़ लिए
दिल की धड़कन को बहुत रोकती समझाती हुई
अपनी पायल की ग़ज़ल-ख़्वानी पे झल्लाती हुई
नर्म शानों पे जवानी का नया बार लिए
शोख़ आँखों में हिजाबात से इंकार लिए
तेज़ नब्ज़ों में मुलाक़ात के आसार लिए
काले बालों से बिखरती हुई चम्पा की महक
सुर्ख़ आरिज़ पे दमकते हुए शालों की चमक
नीची नज़रों में समाई हुई ख़ुद्दार झिजक
नुक़रई जिस्म पे वो चाँद की किरनों की फुवार
चाँदनी रात में बुझता हुआ पलकों का सितार
फ़र्त-ए-जज़्बात से महकी हुई साँसों की क़तार
दूर माज़ी की बद-अंजाम रिवायात लिए
नीची नज़रें वही एहसास-ए-मुलाक़ात लिए
वही माहौल वही तारों भरी रात लिए
आज तुम आई हो दोहराती हुई माज़ी को
मेरा ये ख़्वाब कि तुम मेरे क़रीब आई हो
काश इक ख़्वाब रहे तल्ख़ हक़ीक़त न बने
ये मुलाक़ात भी दीवाने की जन्नत न बने
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