देह की चादर (कविता)

कभी-कभी
शब्दों तक हाथ
नहीं पहुँचता, वेदना में नहाई रोशनी का
शब्द पड़े रहते हैं किसी अँधेरे कोने में
दुनिया के अनजान ख़ज़ाने की तरह

दु:ख रह जाते हैं गूँगे ही
अनछुए
शब्द के न मिलने पर

दु:खों का बोझ उठाते-उठाते
देह की चादर इतनी सफ़ेद हो जाती है
इतनी सफ़ेद
कि सदियों तक सूना रहता है
अनुभव का ताल
खोया-खोया-सा रहता है देश-काल।


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