साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
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दिल्ली, दिल्ली
1955
कभी-कभी शब्दों तक हाथ नहीं पहुँचता, वेदना में नहाई रोशनी का शब्द पड़े रहते हैं किसी अँधेरे कोने में दुनिया के अनजान ख़ज़ाने की तरह दु:ख रह जाते हैं गूँगे ही अनछुए शब्द के न मिलने पर दु:खों का बोझ उठाते-उठाते देह की चादर इतनी सफ़ेद हो जाती है इतनी सफ़ेद कि सदियों तक सूना रहता है अनुभव का ताल खोया-खोया-सा रहता है देश-काल।
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