देखती आँखों ने देखा है शबिस्तानों में
जज़्बा मरने का अभी ज़िंदा है परवानों में
कितना पुर-हौल है माहौल शब-ए-फ़ुर्क़त का
ख़ून भी ख़ुश्क हुआ जाता है शिरयानों में
काम आया न गला फाड़ता ऐ शैख़ तिरा
नज़र आती हैं वही रौनक़ें मय-ख़ानों में
सितम-ए-ताज़ा पे यूँ शुक्र-ए-सितम करता हूँ
जैसे इक और इज़ाफ़ा हुआ एहसानों में
ऐ 'वफ़ा' अहल-ए-ज़बाँ की है इनायत ये भी
कि शुमार आज हमारा है ज़बाँ-दानों में
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें