ध्वंस (कविता)

एक आकाश को भरकर बाज़ुओं में
उछालता हूँ किलकारी के साथ

ज्वालामुखी-सा धधकता हूँ लावे से सराबोर
और कौमार्य-भंग की अतृप्ति से भरा हुआ
लौटता हूँ बदहवास!

अपराध-चक्र में बँधा हुआ जाता हूँ वेश्यालयों में
कटी हुई हवा के साथ चुपचाप
नसों में जम जाता है काला लहू
और समर्पिता देहों के इर्द-गिर्द
घूमता हूँ
एक ख़ून की नदी में डूबता हुआ!

कभी न खुलने वाली खिड़की खुल जाती है आधी रात
एक पतिव्रता तस्वीर भूखे भेड़िए-सी ताकती है ख़ूँख़्वार
पागल अनजानी भीड़—
भीड़ में गंदा गीत गूँजता है उगलता धुआँ
और काँप जाता है खिड़की पर चमकता कटा हाथ
विकृत होकर हिल जाता है मकान
बंद होती खिड़की के साथ!

रोते हैं कुत्ते खंडित दीवारों के पास
निद्रा में चौंक जाती हैं बेख़ौफ़ लड़कियाँ
घायल गौरय्यों-सी फड़फड़ाती है उनकी देह
और बिस्तर में रेंगते हैं
गिलबिले सर्पों के मानव लिंगीय आकार!

एक अनाम परिचिता का नाम लेकर उतर आता हूँ
अँधेरे कोने की भीड़ में से रास्ता टटोल
फेंककर डयूरोपैक का पैकिट
पहचानी झाड़ी की भूरी फ़ेंसिंग के पास


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