साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
संकलित रचनाएँ : 3561
गुरुग्राम, हरियाणा
1936 - 2009
जल में भी रहके न जल लगता था कभी, कीचड़ लगी है अब ऊपर कमल में, बल रहता था बाहुओं में या कि आत्मा में, बल बसता है अब नेताओं के छल में, कव्वे ने उल्लू से कहा उल्लुओं में क्या रखा है हंस कर दूँगा तुझे आ रहा है नीचे रसातल में। दलदल पर खड़ी दिल्ली हँसती है और, देश धँसा जा रहा है नीचे रसातल में।
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