मिट्टी का दीया, और रुई की बाती,
युगों-युगों से दोनों, एक दूसरे के साथी।
कहते हैं जलता दीया, पर जलती है बाती,
दीया बनता सहारा, बाती जलती जाती।
दीया और बाती रिश्ता निभाते, जैसे एक दूसरे के परिपूरक,
दीये के आग़ोश का लेकर सहारा, बाती जलती रहती अपलक।
दीया और बाती तो जैसे, हो कोई पति और पत्नी,
दीया निभाता तटस्थ ज़िम्मेदारी, बाती जलाती पहचान अपनी।
युगों-युगों से चलता आया, दीया और बाती का यह नाता,
एक दूसरे के बिना, दोनों में कोई कुछ नहीं कर पाता।
दोनों सदा सँभालते एक दूजे को, इनके प्यार का न कोई सानी,
पति-पत्नी के प्यार की, यही तो होती सच्ची कहानी।
होकर एक दूजे में समाहित, देते जग को प्रकाश,
दीये के कंधो का लेकर सहारा, बाती छू लेती आकाश।
पति का मिले जब सहारा पत्नी को, लड़ जाती वह जग से,
प्रेम के भाव से मिलती ताक़त, लड़ जाती वह रब से।
दीया और बाती जलते जब साथ, अँधेरा भागता गलियारों से,
पति-पत्नी में जब होता स्नेह, परिवार चलाते ज़िम्मेदारियों से।
एक अद्भुत रिश्ता दीया बाती का, जलकर देतें प्रकाश,
एक अप्रतिम रिश्ता पति-पत्नी का, परिवार को देतें उल्लास।
दीया कहता बाती से, "मैं हुँ तो तुम हो",
बाती कहती दीये से, "मेरे बिना तुम क्या हो"?
दीया कहता फिर बाती से, "मेरे सहारे से है तू जलती",
बाती कहती दीये से, "तु होता सिर्फ़ उत्तप्त, मैं तो जलती रहती"।
नहीं समझते दोनों कुछ भी, हैं बिलकुल नादान,
झगड़ते रहते दोनों दिन ₹-रात, देते एक दूजे को ज्ञान।
रिश्ता यह सदा माँगता त्याग, एक दूजे से प्रतिदान,
जलते रहते, अंधकार भगाते, यही ज़िंदगी का प्रतिमान।
पति-पत्नी में न कोई बराबरी, अपनी जगह दोनों महान,
एक के बिन दूजा न चले, मिलकर करते सब कुछ आसान।
एक दूजे को देतें पूर्णता, अकेले दोनों हैं आधे-आधे,
दोनों मिलकर बनते एक, साथ-साथ ये ज़िंदगी को साधे।

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