दो बूँद आँसुओं के (कविता)

न दो बूँद आँसुओं के निकले,
हैं कवलित हम अवसादन के,
हैं मज़दूर बने मजबूरी बस,
जल कटे मरे हो जाएँ चिथड़े।

है दिशा दशा अवदशा भ्रमित,
फँस मकड़जाल हों आर्त क्षुधित,
दाता जन मन पददलित पीड़ित,
वे रहे महल सुख आनंदित।

परवाह किसे क्षुधार्थ अनल,
रोग शोक पीड़ परीताप दहल,
हम कामगार अभिशापी हरपल,
भटके इधर उधर या गाँव शहर।

कोई रोए हँसे यहाँ यह चाह नहीं,
दीन हीन मक्कार कहे परवाह नहीं,
हैं निर्माणक नित सेतु उद्योग महल,
पर जग दे न कभी सम्मान हमें।

हे मीत न तुम अवसाद करो,
खल दानवता का प्रतिकार बनो,
ले जन्म धरा विधिलेख बुरा,
क्रन्दन मजदूर मरण न आश धरो।


लेखन तिथि : 9 मई, 2020
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