दुःख का प्रतिबिंब (कविता)

यह जो क्षण-क्षण में उबलता है
चूल्हे पर रखी चाय की तरह
दुःख नहीं है
दुःख की महज़ सनसनाहट है

ज्यों नुकीला इंजेक्शन बेध देता त्वचा को
एक तीखी चुभन माँस फाड़ देती है
पीड़ा लेती है अपना पूरा समय प्रारंभ होने के पहले
ठहरती कई दिनों तक नसों में
लहू गुनगुना रखती है

कोई बिंब नहीं होता दुःख का
केवल प्रतिबिंब होता है
हथेलियों से ढके उस चेहरे का
जो दर्पण के सामने से कतराते हुए गुज़रता है
दर्पण का पारदर्शी पैनापन बेध देता आर-पार
दुःख बहता नहीं बाहर
लहू का थक्का बन जम रहता है

फूटता है दुःख बाद बरसों
जब कोई उँगलियों के टिप्पे सहलाता है हौले से
दुःख धीमे-धीमे रिसता है

फूटता है दुःख
जब चंद्रमा कर लेता आत्महत्या नदी में कूद कर
पीछे आकाश में उजला प्रतिबिंब छूट जाता है
कवि लगा लेता सीढ़ियाँ आकाश तक
चढ़ जाता ऊँचाई
चंद्रमा का प्रतिबिंब चुरा लाता है

चंद्रमा का शव नदी के भीतर
गलता है


रचनाकार : बाबुषा कोहली
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