दुनिया समझ रही है कि पत्थर उछाल आए
हम अपनी प्यास जा के समुंदर में डाल आए
जो फाँस चुभ रही है दिलों में वो तू निकाल
जो पाँव में चुभी थी उसे हम निकाल आए
कुछ इस तरह से ज़िक्र-तबाही सुनाइए
आँखों में ख़ून आए न शीशे में बाल आए
समझो कि ज़िंदगी की वहीं शाम हो गई
किरदार बेचने का जहाँ भी सवाल आए
गुज़रो दयार-ए-फ़िक्र से 'मंसूर' इस तरह
ख़ुद पर ज़वाल आए न फ़न पर ज़वाल आए
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें