दूसरी तरफ़ (कविता)

कहीं भी दाख़िल होते ही
मैं बाहर जाने का रास्ता ढूँढ़ने लगता हूँ

मेरी यही उपलब्धि है कि
मुझे ऐसी बहुत जगहों से
बाहर निकलना आता है
जहाँ दाख़िल होना मेरे लिए नहीं मुमकिन

कि मैं तेरह ज़बानों में नमस्ते
और तेईस में अलविदा कहना जानता हूँ

कोई बोलने से ज़्यादा हकलाता हो
चलने से ज़्यादा लँगड़ाता हो
देखने से ज़्यादा निगाहें फेरता हो
जान लो मेरे ही क़बीले से है

मेरी बीवी—जैसा कि अक्सर होता है—
मुख़्तलिफ़ क़बीले की है
उससे मिलते ही आप उसके
मुरीद हो जाएँगे

देखना एक रोज़ यह बातूनी चुड़ैल
हँसते-हँसते मेरा ख़ून पी जाएगी।


रचनाकार : असद ज़ैदी
यह पृष्ठ 167 बार देखा गया है
×

अगली रचना

मेरे दुश्मन


पिछली रचना

संस्कार
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें