नींद नहीं आती
लोग आते हैं।
हरे जवासों के तन
वर्षा के प्रथम जल में जलते हैं।
कच्चे काँटों की छुरग्र-धार-कथा
आँखों में टूट गई है—
नींद नहीं आती।
इन मायारू आँखों ने इसी तरह
कितनी बार ख़ून उगला है
कितनी बार मुँह में आग दी है
अभिमानी मूँछें और वत्सल होंठ—फूँके हैं,
और फिर इस पिंजरे को लेकर
मेरी यादों ने कितनी बार
असगुनी जलवायुओं के घर
बदले हैं।
लेकिन इस अनऋतु के बाहर... बाहर... बाहर
मौसम की हर आँख
मेरी संवेदना में, सुख से
सोई ही मिली है।
और लो... वे कहते हैं—
कहीं आराम से सोया होगा
ईमानख़ोर।

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