एक दिन (कविता)

पृथ्वी पर जन्मे
असंख्य लोगों की तरह
मिट जाऊँगा मैं।

मिट जाएँगी मेरी स्मृतियाँ
मेरे नाम के शब्द भी हो जाएँगे
एक-दूसरे से अलग
कोश में अपनी-अपनी जगह पहुँचने की
जल्दबाज़ी में
अपने अर्थ तक समेट लेंगे वे।

'शलभ' कहीं होगा
कहीं होगा 'श्रीराम'
और 'सिंह' कहीं और।

लघुता-मर्यादा और हिंस्र पशुता का
समन्वय समाप्त हो जाएगा एक दिन
एक दिन
असंख्य लोगों की तरह
मिट जाऊँगा मैं भी।

फिर भी रहूँगा मैं
राख में दबे अंगार की तरह
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम, अपरिचित
रहूँगा फिर भी—फिर भी मैं!


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