एक दो-दिन का है ख़ुमार, बस, और (ग़ज़ल)

एक दो-दिन का है ख़ुमार, बस, और,
सोचा थोड़ा-सा इंतिज़ार, बस, और।

भूल जाने में कौन मुश्किल है,
चार-छै उम्र का क़रार, बस, और।

मुझे पहले-पहल यही लगा था,
मुझे खा जाएगा क्या प्यार, बस, और।

नदिया, सहरा, पहाड़, फिर जंगल,
मुझमें उग आया इंतिज़ार, बस, और।

बस यही चाह थी तुम्हारी, अब,
हो गए तार-तार, यार, बस, और।


रचनाकार : रोहित सैनी
लेखन तिथि : 26 जनवरी 2024
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अरकान : फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
तक़ती : 2122 1212 22
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इक ख़ुमारी है बे-क़रारी है


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