एक कोई काम अच्छे से नहीं होता गुरू,
ढेर भर बड़का गुरू मँझला गुरू छोटा गुरू।
हर किसू का पार्लर लेकिन हुसुन हईयै नहीं,
शायरी बर्बाद फ़र्नीचर भया ज़्यादा गुरू।
रफ़्ता रफ़्ता हम हुनर को गालियाँ देने लगे,
फ़िक्र-ओ-फ़न का हर इदारा हो गया नंगा गुरू।
हर किसू का बीस गज़ लंबा भया है क़ाफ़िया,
हर विरासत हर हुनर से तोड़ के नाता गुरू।
हर जगह चेले लगे सो उनके चेले आ गए,
इस तरह इल्म-ओ-अदब का कर दिया राड़ा गुरू।
उसपे तुर्रा ये कि हमसे ही नवा-ए-वक़्त है,
इल्किलाबी दौर में अवाम को ठोका गुरू।
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