एक मुश्किल किताब जैसी थी (ग़ज़ल)

एक मुश्किल किताब जैसी थी
ज़िंदगी इक अज़ाब जैसी थी

हम को तो ख़ार ही मिले लेकिन
ये सुना था गुलाब जैसी थी

घूँट दर घूँट पी तो ये जाना
एक कड़वी शराब जैसी थी

आई हिस्से में जो यतीमों के
वो तो ख़ाना-ख़राब जैसी थी

उम्र भर हम सहेजते थे जिसे
एक ख़स्ता किताब जैसी थी

कोई ता'बीर ही न हो जिस की
इक अधूरे से ख़्वाब जैसी थी

है शिकस्ता सी आज ये लेकिन
बचपने में नवाब जैसी थी

तुम ने देखी नहीं जवानी में
ज़िंदगी आफ़्ताब जैसी थी


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