एक था शख़्स ज़माना था कि दीवाना बना (ग़ज़ल)

एक था शख़्स ज़माना था कि दीवाना बना
एक अफ़्साना था अफ़्साने से अफ़्साना बना

इक परी-चेहरा कि जिस चेहरे से आईना बना
दिल कि आईना-दर-आईना परी-ख़ाना बना

ख़ेमा-ए-शब में निकल आता है गाहे गाहे
एक आहू कभी अपना कभी बेगाना बना

है चराग़ाँ ही चराग़ाँ सर-ए-आरिज़ सर-ए-जाम
रंग-ए-सद-जल्वा-ए-जानाना सनम-ख़ाना बना

एक झोंका तिरे पहलू का महकती हुई याद
एक लम्हा तिरी दिलदारी का क्या क्या न बना


  • विषय : -  
यह पृष्ठ 386 बार देखा गया है
×

अगली रचना

सहर से रात की सरगोशियाँ बहार की बात


पिछली रचना

तुम गुलिस्ताँ से गए हो तो गुलिस्ताँ चुप है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें