एकान्त (कविता)

जूठनें ना उठाई, न जूठा पिया।
इसलिए दूर संसार ने कर दिया।
मोह, संकोच, सम्बन्ध सब त्यागकर,
आत्म सन्तोषवश सत्य ही कह सका।
बाह्य व्यक्तित्व से बिन प्रभावित हुए,
चापलूसी, कपट, झूठ ना सह सका।
लोग पागल, भ्रमित, मूर्ख कहते रहे,
किन्तु तोड़ा न संकल्प जो कर लिया।
इसलिए दूर संसार ने कर दिया।।

रूप-गरिमा, प्रभावी पदों से पृथक्,
आचरण-हीन, भाषण सराहे नहीं।
मूल्यआदर्श, सिद्धान्त को छोड़कर,
अर्थ-अर्जन, निजी लाभ चाहे नहीं।
अधभरा पेट लेकर कई निशि जगा,
स्वाभिमानी रहा, ना कृपा पर जिया।
इसलिए दूर संसार ने कर दिया।।

भ्रष्ट नेतृत्व का, न्यायच्युत कृत्य का,
भीड़, वनतन्त्र का ना समर्थक रहा।
शान्त, निष्पक्ष, निर्भीक होकर जिया,
मैं न अन्याय पर मूक-दर्शक रहा।
मित्र बागी, हठी, रूढ़ कहने लगे,
किन्तु फिर भी नहीं एक उत्तर दिया।
इसलिए दूर संसार ने कर दिया।।

साधु के भेष में धूर्त-मक्कार कुछ,
स्वार्थ की रोटियाँ सेक पाये नहीं।
ज्ञान के दीप तम में जलाता रहा,
लोग पत्थर तभी फेंक पाये नहीं।
रुष्ट, कट्टर, कुटिल, वक्र कहते रहे,
किन्तु बदली न आदत, न बदला ठिया।
इसलिए दूर संसार ने कर दिया।।

मैं किसी को नहीं आज अनुकूल हूँ
माँग मेरी नहीं अब किसी प्रान्त में।
आ गया पूज्य माँ शारदा की शरण,
मैं बहुत हूँ मगन ‘नमन’ एकान्त में।
ग्रीष्म की जब तपन लोग सह ना सके,
शीत से शान्त सारा शहर कर दिया।
इसलिए दूर संसार ने कर दिया।
जूठनें ना उठाईं, न जूठा पिया।
इसलिए दूर संसार ने कर दिया।।


लेखन तिथि : 17 अप्रैल, 2021
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