गगन बजाने लगा जल-तरंग फिर यारो (ग़ज़ल)

गगन बजाने लगा जल-तरंग फिर यारो,
कि भीगे हम भी ज़रा संग संग फिर यारो।

किसे पता है कि कब तक रहेगा ये मौसम,
रखा है बाँध के क्यूँ मन को रंग फिर यारो।

घुमड़ घुमड़ के जो बादल घिरा अटारी पर,
विहंग बन के उड़ी इक उमंग फिर यारो।

कहीं पे कजली कहीं तान उट्ठी बिर्हा की,
हृदय में झाँक गया इक अनंग फिर यारो।

पिया की बाँह में सिमटी है इस तरह गोरी,
सभंग श्लेष हुआ है अभंग फिर यारो।

जो रंग गीत का 'बलबीर'-जी के साथ गाया,
न हम ने देखा कहीं वैसा रंग फिर यारो।


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