ग़रीब आदमी हूँ,
मयस्सर नहीं सूखी रोटी भी
जो मिलता है हलक में डाल लेता हूँ।
जी तोड़ मेहनत करता हूँ,
पूरे परिवार का बोझ ढो लेता हूँ।
अपनों के लिए जीता हूँ,
अपनों के लिए मरता हूँ,
अपनों को ख़ुश देख कर
ख़ुशी के आँसू गटक लेता हूँ।
ग़रीब आदमी हूँ,
मगर रिश्तो की पूँजी समेट लेता हूँ।
दबा है जीवन मेरा क़र्ज़ तले,
मेरी हर इच्छा दबी है फ़र्ज़ तले।
एक अदद छत भी नहीं सर पर,
दो पैसे कमाने के लिए
फुटपाथ पर भी रह लेता हूँ।
ग़रीब आदमी हूँ,
चुपचाप हर दर्द सह लेता हूँ।
मलाल नहीं कि ग़रीब पैदा हुआ,
कोशिश इतनी है कि बच्चे ग़रीब ना रहे,
उनके लिए भी कुछ बचा लेता हूँ,
बेहतर भविष्य के लिए पढ़ा लेता हूँ।
ग़रीब आदमी हूँ,
मगर सपने मैं भी सजा लेता हूँ।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें