गेहूँ की सोच (कविता)

काँप रहीं खेतों में गेहूँ की बालियाँ
मेंड़ पर बैठा है भूमिजन चिलम पीता, खाँसता।
सोचती हैं बालियाँ—
‘यहाँ से हमें तोड़-तोड़
बच्चे ले जाएँगे,
जलाएँगे होली में

(गाएँगे गालियाँ
बजाएँगे तालियाँ)

याकि हमें जोड़-जोड़
खेतिहर अनजान
बेचेंगे किसी लाभकर्मी निरे ख़ुदग़र्ज़ बनिए को
(बोवेंगे यह कपास, वह जूट; हाय हम में ही फूट!)

बहुत कुछ जाएगा लगान
कुछ जाएगी क़र्ज-क़िस्त
बाक़ी रह जाएगी—
झोंपड़ियों की उन भूखी अँतड़ियों के लिए सूखी
एक बेर रोटी—!
क्या यह नीति खोटी नहीं?
गेहूँ के मोती-से दाने जो पसीने से
उगाए, अरे बदे हों उसी के भाग
आँसू के दाने सिर्फ़!
सींचे वही ख़ून जो लगाए वह सीने से,
और आँख मीच खाएँ वे कि जिन्हें जीने से
उतरने में कीमख़ाब गड़ती हो...!
छिः ऐसे जीने से बेहतर नहीं है क्या
होली में जल जाना?
होली में जल जाना क्या है बुरा?
क्या हैं बुरी गालियाँ?
सोचती हैं बालियाँ...
जब तक नहीं आसान मिलती हैं तालियाँ
मानव के कोष-दोष-जन्य घोर असंतोष
संचय की,
विनिमय के वैषम्य के मदहोश तालों की।


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