ग़म से जब आगही नहीं होती (ग़ज़ल)

ग़म से जब आगही नहीं होती
ख़ुश भी रह कर ख़ुशी नहीं होती

जब तवज्जोह तिरी नहीं होती
ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं होती

उफ़ वो मायूसी-ए-हयात कि जब
हसरत-ए-मर्ग भी नहीं होती

हँसने वालो तुम्हें शु'ऊर भी है
हर ख़ुशी तो ख़ुशी नहीं होती

बढ़ती जाती है दिल की मायूसी
आरज़ू में कमी नहीं होती

अब तो तस्कीन-ए-दिल बसा औक़ात
तेरी महफ़िल में भी नहीं होती

जो जबीं तेरे दर पे झुक न सके
क़ाबिल-ए-बंदगी नहीं होती

मैं ने देखा है चाँद तारों में
शाम-ए-ग़म रौशनी नहीं होती

शिद्दत-ए-ग़म का राज़ खुलता है
मेरे लब पर हँसी नहीं होती

क्या सितम है कि 'अक़्ल वालों को
'इश्क़ से आगही नहीं होती

क्या जुनूँ है कि लोग कहते हैं
'अक़्ल दीवानगी नहीं होती

ये जुनून-ए-पयंबरी 'मख़मूर'
इस तरह शा'इरी नहीं होती


रचनाकार : मख़मूर सईदी
  • विषय : -  
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