जीवन गहराता जा रहा,
एक घने धुँध से।
मन व्याकुल है;
जैसे पिंजरे में बंद कोई पक्षी हो।
हृदय आहत है;
अपने ही द्वारा किए गए कार्यों से।
शरीर एकांत चाहता है–
जहाॅं, वह लोगों के वाक्-बाणों से,
अपने हृदय को बचा सके।
मानस में असंख्य विचार
झकझोरते हैं चित्त को।
अन्यमनस्क-सा
सोचता है मेरा मन।
पर, कुछ कर नहीं पाता।
ना ही कुछ सोचता ही,
अपने कर्तव्यों के बारे में।
या ज़िम्मेदारियों के निर्वहन हेतु।
थका, हारा एक पथिक सा मेरा मन
बैठ जाता है,
किसी साधक के कुटिया के समक्ष।
अपने प्रश्नों के उत्तर के लिए–
अनवरत्
समाधिस्थ, एकांत।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें