घर (कविता)

चौकन्ना हो जाता है तब
जब भी पुरुष ज़ोर से खंखार लेते हैं गला अपना

लेता है गहरी साँसें
जब स्त्रियाँ करती हैं आराम

सोता है जब
बच्चे थककर सो जाते हैं

अनमना हो उठता है
जब हो जाती है
कहासुनी पति-पत्नी में

हो जाता है मौन
जब नहीं होती
नोक-झोंक पति-पत्नी के बीच

मुस्कुरा उठता है
जब साथ मिलकर खाते हैं
निवाले दो जन

खिलखिलाता है
जब बच्चे करते हैं
शरारतें

देखता है टुकुर-टुकुर
आस में
जब निकल पड़ते हैं हम
लंबे सफ़र के लिए कहीं

रह जाता है
बश चहारदीवारी-सा
जब बच्चे बसा लेते हैं आशियाना
माता-पिता से दूर।


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