ग़रीब लोग (कविता)

ग़रीब लोगों की आँखों में दूरबीन लगी होती है
वे दूर से ही देख लेते हैं
कच्चे-पक्के जामुन, खजूर, खिरनियाँ,
उन्हें दूर से ही पता चल जाता है
कहाँ है सूखी लकड़ियाँ, गोबर

उनके पेट में धधकता धुँधआता रहता है चूल्हा
जिसमें सिंकती हैं रोटियाँ
उनके गालों में भरे होते हैं प्याज़
उनकी कटी ज़बान लाल मिर्च की तरह
उनकी आँखों में ख़ुशी के आँसू ला देती है

ग़रीब लोगों की आत्माओं से भाप निकलती है
जिससे चलती हैं रेलें, दौड़ते हैं स्टीमर
उनके पसीने से बनता है पेट्रोल
उनके ख़ून से बनते हैं दुनिया के सारे रंग
उनकी जिजीविषा से दार्शनिकों विचारकों के
गंभीर चेहरों पर दमकता है तेज़
उनके हास-परिहास से जवान होते हैं बूढ़े ऋषि

ग़रीब औरत के पेट में सारे संसार के पाप और पुण्य का
रहस्य छिपा है
उसके खुरदरे हाथों की सुंदरता में फलों से लदे वृक्षों की
उदारता है
ग़रीब लोग अपनी औरतों को कई नामों से पुकारते हैं
उनकी भाषा में पर्यायवाची शब्द अधिक होते हैं
सारे ग़रीब लोग कवि होते हैं...

तू ग़रीब है
इसका पता तुझे तब चला जब तू रोटी सिंकने की
प्रतीक्षा में कोयले की नश्वरता के बारे में सोच रहा था
तू ग़रीब रहा है
तूने अपनी टूटी चारपाई की दामन से
बिस्तर बाँधकर कड़े पर लटकाया है

मैं नहीं हूँ ग़रीब—
मैंने काटकर फटी बाँहें अपनी
कमीज़ का बनाया है बुशर्ट
बनियान की पट्टी को नीचे से उधेड़
डाला है कच्छे में नाड़ा
रबड़ की चप्पल में अटकाई है पिन
मेरे पास चुभोने के लिए यह पिन है
मैं ग़रीब नहीं हूँ


रचनाकार : ऋतुराज
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