गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर (ग़ज़ल)

गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर
रह गया मैं अपने अंदर टूट कर

सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
रो रहा था नीला अम्बर टूट कर

मैं सिमट जाऊँगा ख़ुद ही दोस्तो
मैं बिखर जाता हूँ अक्सर टूट कर

और भी घर आँधियों की ज़द में थे
गिर गया उस का ही क्यूँ घर टूट कर

रो रहा है आज भी तक़दीर पर
सब्ज़-गुम्बद से वो पत्थर टूट कर

अब नहीं होता मुझे एहसास कुछ
मैं हूँ अब पहले से बेहतर टूट कर

चंद ही लम्हों में 'ताबिश' बह गया
मेरी आँखों से समुंदर टूट कर


रचनाकार : ज़फ़र ताबिश
यह पृष्ठ 250 बार देखा गया है
×

अगली रचना

न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें


पिछली रचना

बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें