हाथ दिया इस ने मिरे हाथ में
मैं तो वली बन गया इक रात में
इश्क़ करोगे तो कमाओगे नाम
तोहमतें बटती नहीं ख़ैरात में
इश्क़ बुरी शय सही पर दोस्तो
दख़्ल न दो तुम मिरी हर बात में
मुझ पे तवज्जोह है सब आफ़ात की
कोई कशिश तो है मिरी ज़ात में
राह-नुमा था मिरा इक सामरी
खो गया मैं शहर-ए-तिलिस्मात में
मुझ को लगा आम सा इक आदमी
आया वो जब काम के औक़ात में
शाम की गुल-रंग हवा क्या चली
दर्द महकने लगा जज़्बात में
हाथ में काग़ज़ की लिए छतरियाँ
घर से न निकला करो बरसात में
रब्त बढ़ाया न 'क़तील' इस लिए
फ़र्क़ था दोनों के ख़यालात में
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