हम थे और हमें जानते थे वे
मगर यह तथ्य अच्छी तरह जानते हुए भी
वे नहीं जान रहे थे हमें...
यह जान रहे थे हम
कि वे नहीं जान रहे थे हमें
क्या वे सचमुच नहीं जान रहे थे यह
कि हम थे और हमें जानते थे वे?
हम वहाँ जाना चाहते थे
जहाँ वे अक्सर आना चाहते थे
मगर दरअसल आ नहीं पाते थे
सिर्फ़ आने का गाना गाते थे
कभी गांधी कभी मार्क्स कभी माओ
कभी लेनिन का प्लेबेक लेकर
जब हमने वह नर्क जान लिया
तब उन्होंने यह तर्क मान लिया
कि अब उनकी जानकारी में क्यों रहें हम?
क्यों बनें हमारे लिए वे छायादार वृक्ष?
क्या बोधिसत्व हमने उगाया था?
उनके चेहरों पर एक ऐसा बोध था
जो कभी बुद्ध के चेहरे पर भी नहीं रहा होगा
हमने उन तमाम चेहरों को असली समझा
जबकि उन तमाम चेहरों के नीचे खंदकों में
चेहरों का एक लोकप्रियजंगल था
जंगल में सदाबहार मंगल था
(तुक मिलाने के लिए दंगल था)
लेकिन हक़ीक़त यह है
कि हमारे चेहरों पर कोई चेहरा नहीं था
यहाँ तक कि हमारे अपने चेहरे का भी
कोई अकस्मात चेहरा नहीं था
शायद यह धूमिल को पता था
कि हमारा चेहरा कहाँ था?
वे कुछ समझदार लोग
पीछे से हमारा चेहरा उठाकर लाते थे
और हमसे बहुत आगे निकल जाते थे
हम सब भी रिपोर्ट दर्ज करवाते थे
और अब भी करवाते हैं...
कि हमारा चेहरा हमें वापिस करो।
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