हर घड़ी इंक़लाब में गुज़री (ग़ज़ल)

हर घड़ी इंक़लाब में गुज़री,
ज़िंदगी किस अज़ाब में गुज़री।

शौक़ था माना-ए-तजल्ली-ए-दोस्त,
उन की शोख़ी हिजाब में गुज़री।

करम-ए-बे-हिसाब चाहा था,
सितम-ए-बे-हिसाब में गुज़री।

वर्ना दुश्वार था सुकून-ए-हयात,
ख़ैर से इज़्तिराब में गुज़री।

राज़-ए-हस्ती की जुस्तुजू में रहे,
रात ताबीर-ए-ख़्वाब में गुज़री।

कुछ कटी हिम्मत-ए-सवाल में उम्र,
कुछ उमीद-ए-जवाब में गुज़री।

किस ख़राबी से ज़िंदगी 'फ़ानी',
इस जहान-ए-ख़राब में गुज़री।


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