हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का (ग़ज़ल)

हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का
मकाँ तो है पे ठिकाना नहीं मकीनों का

खिला जो बाग़ में ग़ुंचा सितारा-दार खिला
गुलों ने नक़्श उतारा है मह-जबीनों का

है अपनी अपनी तबीअत पे हुस्न-ए-शय मौक़ूफ़
मैं क्यूँ हूँ बंदा-ए-बे-दाम उन हसीनों का

नज़र का क्या है भरोसा नज़र पे हैं पर्दे
ख़याल अर्श पे जाता है दूर-बीनों का

ज़मीन-ए-शोर हो या हो ज़मीन-ए-शेर ऐ दिल
नहीं है कोई ख़रीदार इन ज़मीनों का

बहिश्त-ए-दहर है अपना वतन ख़ुदा की क़सम
जुदा जुदा है तराना सभी महीनों का

किसी को मान लिया दिल ने जब तो मान लिया
न दख़्ल दो यही मस्लक है ख़ुश-यक़ीनों का

जो हो मुसव्विर-ए-फ़ितरत मिसाल क्या उस की
गुमाँ न चाहिए इंसाँ पे आबगीनों का

ज़रा निकल के तो दुनिया से देख ऐ इंसाँ
पता न दिन का न अंदाज़ है महीनों का

सिखा दिया मुझे बच बच के रास्ता चलना
ख़ुदा भला करे ऐ 'शाद' नुक्ता-चीनों का


  • विषय : -  
यह पृष्ठ 331 बार देखा गया है
×

अगली रचना

हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़


पिछली रचना

हो के ख़ुश नाज़ हम ऐसों के उठाने वाला
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें