हे जनमानस के राष्ट्रकवि! (कविता)

साहित्य धरा के नलिन पुष्प,
वसुधा पर भूषित प्रवर अंश।
है नमन तुम्हें दिनकर उजास,
हो दीप्तिमान तुम काव्य वंश।

सौंदर्यमयी आभा, विभूति,
नभमंडल व्यापित दिव्य रवि।
ओजस्व, प्रखरता और चिंतन,
कल्पनाजन्य तुम राष्ट्रकवि।

तुम अनुभूति के अरुणोदय,
साहित्य-साधना परिचायक।
परिवर्तन प्रगति के राष्ट्रभक्त,
हे क्राँति कान्ति के जननायक।

तुम स्वयं हुकूमत की हुँकार,
हो स्वयं काव्य के महाशिखर।
तुम स्वयं यहाँ जनमानस रव,
हो बने क्राँति की ज्योति प्रखर।

तुम राजनीति के थे कटाक्ष,
तुमसे ही जन्मा द्वंद्वगीत।
तुम राष्ट्रवाद की परिभाषा,
तुम राष्ट्रहितों की अमरजीत।

तुम कुरुक्षेत्र की महाकृति,
तुम उर्वशी सौंदर्य काव्य।
हो स्वयं प्रतीक्षा परशुराम,
तुम रश्मिरथी हो खंडकाव्य।

तुम समरशेष तुम शंखनाद,
तुम भाव, छंद की प्रबल धार।
तुम स्वयं जागरण राष्ट्रचित्र,
तुम शब्द शरासन का प्रहार।

हर शब्द प्रलय गण्डीव बना,
चिंतन निस्पंदन जीव बना।
हुंकार काव्य स्तम्भ बनी,
नव दिशा उदित प्रारंभ बनी।

ये धरा और हिन्दी प्रांगण,
सत कोटि युगों तक ऋणी रहे।
हो युगों-योगों तक ही गर्जन,
हर कविता शौर्य से खड़ी रहे।

हे जनमानस के राष्ट्रकवि!
जीवंत काव्य के हे गौरव!
हिन्दी के सुरभित प्रांगण में,
उद्भवित सदा तुम दिनकर नव।


लेखन तिथि : 23 सितम्बर, 2022
यह पृष्ठ 318 बार देखा गया है
×

अगली रचना

हे हास्य व्यंग के महारथी!


पिछली रचना

भारत का गौरव: डॉ॰ ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें