हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति (कविता)

तुम अष्टभुजा तुम सरस्वती,
तुम कालरात्रि तुम भगवती,
हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति।

ज्ञान का भंडार खोलती,
शंकराचार्य का दंभ तोड़ती,
जब बनती तुम भारती।

युद्ध क्षेत्र में क़दम रखती,
दुष्टों का संहार करती,
जब वीरांगना लक्ष्मीबाई तुम बनती।

राजनीति की राह अपनाती,
सारी दुनिया भी हिल जाती,
जब तुम इंदिरा बन जाती।

सुदूर नभ में अंतरिक्ष यान उड़ाती,
एक नया वैज्ञानिक आयाम बनाती,
जब तुम कल्पना सुनीता बन जाती।

सर्वगुण से संपन्न करती,
सारी इच्छा पूर्ति करती,
माँ के रूप में जब हमसे मिलती।

हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति।


रचनाकार : आशीष कुमार
लेखन तिथि : 2 अक्टूबर, 2021
यह पृष्ठ 322 बार देखा गया है
×

अगली रचना

मानवता का पतन


पिछली रचना

मंज़िल पुकार रही है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें