हिन्दी (कविता)

मिली एक महिला कल मुझको,
सुस्त और रोई सी थी।
किन्ही दुखों के कारण वो,
अपने ग़म में खोई सी थी।

माथे पर उसके मुकुट सजा,
जर्जर था बहुत पुराना था।
ऐसा लगता शृंगार किए,
बीता बहुत ज़माना था।

ऐसा लगता था उसे देख,
कोई महारानी वह होगी।
आँखों में आँसू थे शायद–
करुण कहानी तो होगी।

वह वस्त्र राजसी पहनी थी,
पर उनमें बहुत मलिनता थी।
थी भरी जवानी में झुर्री,
उसके चेहरे पर चिंता थी।

मैं पहुँच गया उसके समीप,
पूछा यह कैसे हाल हुआ?
तुम लगती हो मुझको देवी,
क्यों हाल बहुत बेहाल हुआ?

असमय झुर्री असमय चिंता,
असमय बुढ़ापा आया है।
तुम अपना मानो तो बताओ,
किसने तुम्हें सताया है?

महिला बोली मैं तो हिंदोस्ताँ–
के माथे की बिंदी हूँ।
मैं सूरदास की, तुलसी की,
भूषण की भाषा हिंदी हूँ।

समृद्ध मेरा इतिहास रहा,
मैं जन-जन की तब भाषा थी।
मैं हिंदोस्ताँ की भाषा हूँ,
ये ही मेरी परिभाषा थी।

इतना मेरा सम्मान रहा,
भारत में पूजी जाती थी।
समृद्ध मेरी साहित्य कृति,
मेरे गुण को बतलाती थी।

जब भारत देश स्वतंत्र हुआ,
मैं बनी राजभाषा तब थी।
''मेरा भविष्य भी स्वर्णिम है'',
मुझको मन में आशा तब थी।

पर वर्तमान में, भारत में,
पहले जैसा सम्मान नहीं।
सब अंग्रेजी की ओर चले,
इस तरफ़ किसी का ध्यान नहीं।

दफ़्तर में या विद्यालय में,
ऊँचे पद पर, नीचे पद पर।
कहलाते अज्ञानी, अशिक्षित,
हिंदी बोली उस जगह अगर।

जिस भारत की मैं भाषा हूँ,
पहचान वहीं पर होती हूँ।
अपनी स्थिति को देख-देख,
दिन रात अकेली रोती हूँ।

जब आता हिंदी दिवस–
यहाँ झूठा आदर दिखाते हैं।
कुछ लोग यहाँ ऐसे भी हैं;
जो हिंदी पढ़ने में शर्माते हैं।

बोलो तुम कोई भी भाषा,
पर मेरा मत अपमान करो।
मैं हूँ तुम सब की मातृभाषा,
मेरा कुछ तो सम्मान करो।

हिंदुस्ताँ का शृंगार करूँ,
मैं भारत माँ की बिंदी हूँ।
जिस भाषा से उन्नति होगी,
मैं वो ही भाषा 'हिंदी' हूँ।


लेखन तिथि : 2023
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