हम लोटते हैं वो सो रहे हैं (ग़ज़ल)

हम लोटते हैं वो सो रहे हैं
क्या नाज़-ओ-नियाज़ हो रहे हैं

क्या रँग जहाँ में हो रहे हैं
दो हँसते हैं चार रो रहे हैं

दुनिया से अलग जो हो रहे हैं
तकियों में मज़े से सो रहे हैं

पहुँची है हमारी अब ये हालत
जो हँसते थे वो भी रो रहे हैं

तन्हा तह-ए-ख़ाक भी नहीं हम
हसरत के साथ सो रहे हैं

सोते हैं लहद में सोने वाले
जो जागते हैं वो रो रहे हैं

अरबाब-ए-कमाल चल बसे सब
सौ में कहीं एक दो रहे हैं

पलकों की झपक दिखा के ये बुत
दिल में नश्तर चुभो रहे हैं

मुझ दाग़-नसीब की लहद पर
लाले का वो बीज बो रहे हैं

पीरी में भी हम हज़ार अफ़्सोस
बचपन की नींद सौ रहे हैं

दामन से हम अपने दाग़-ए-हस्ती
आब-ए-ख़ंजर से दो रहे हैं

में जाग रहा हूँ ए शब-ए-ग़म
पर मेरे नसीब सौ रहे हैं

रोएँगे हमें रुलाने वाले
डूबेंगे वो जो डुबो रहे हैं

ऐ हश्र मदीने में न कर शोर
चुप चुप सरकार सौ रहे हैं

आईने पे भी कड़ी निगाहें
किस पर ये इताब हो रहे हैं

भारी है जो मोतियों का माला
आठ आठ आँसू वो रो रहे हैं

दिल छीन के हो गए हैं ग़ाफ़िल
फ़ित्ने वो जगा के सौ रहे हैं

है ग़ैर के घर जो इन की दावत
हम जान से हाथ धो रहे हैं

सद शुक्र ख़याल है उसी का
हम जिस से लिपट के सौ रहे हैं

हो जाएँ न ख़ुश्क दाग़ के फूल
आँसू उन को भिगो रहे हैं

आएगी न फिर के उम्र-ए-रफ़्ता
हम मुफ़्त में जान खो रहे हैं

क्या गिर्या-ए-बे-असर से हासिल
इस रोने पे हम तो रो रहे हैं

फ़रियाद कि नाख़ुदा-ए-कश्ती
कश्ती को मिरी डुबो रहे हैं

क्यों करते हैं ग़म-गुसार तकलीफ़
आँसू मिरे मुँह को धो रहे हैं

महफ़िल बरख़ास्त है पतंगे
रुख़्सत शम्ओं' से हो रहे हैं

है कूच का वक़्त आसमाँ पर
तारे कहीं नाम को रहे हैं

उन की भी नुमूद है कोई दम
वो भी न रहेंगे जो रहे हैं

दुनिया का ये रंग और हम को
कुछ होश नहीं है सो रहे हैं

ठहरो दम-ए-नज़्अ' दो घड़ी और
दो चार नफ़स ही तो रहे हैं

फूल उन को पिन्हा पिन्हा के अग़्यार
काँटे मिरे हक़ में बो रहे हैं

ज़ानू पे 'अमीर' सर को रक्खे
पहरों गुज़रे कि रो रहे हैं


रचनाकार : अमीर मीनाई
  • विषय : -  
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