हम तो रूठे थे आज़माने को (ग़ज़ल)

हम तो रूठे थे आज़माने को
कोई आया नहीं मनाने को

जाने क्या बैर है ज़माने को
फल समझता है आशियाने को

पारसाओं ने ग़ौर से देखा
चलते-फिरते शराब-ख़ाने को

सहन की ख़ाक बाम के तिनके
कुछ तो दे दो दवा बनाने को

और कितना बुलंद हो जाऊँ
तेरी चौखट पे सर झुकाने को

क्या सितम है कि मार कर पत्थर
भूल जाता है वो निशाने को

उस ने पर भी मिरे नहीं कतरे
मैं तो राज़ी था फड़फड़ाने को

हम बड़ी दूर चल के आए हैं
पाँव इक शख़्स के दबाने को


रचनाकार : फ़हमी बदायूनी
  • विषय : -  
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