आज हमारे साहित्य को देश तथा साहित्यिकों के समाज में वह महत्व प्राप्त नहीं, जो उसे राजनीति के वायुमंडल में रहने वाले में, जन्म-सिद्ध अधिकार के रूप से प्राप्त है। इसलिए हमारे देश के अधिकांश प्रांतीय साहित्यिक राजनीति से प्रभावित हो रहे हैं। यह सच है कि इस समय देश की दशा के सुधार के लिए कार्यकारी सच्ची राष्ट्र-नीति की अत्यंत आवयश्कता है, पर यह भी सच है कि देश में नवीन संस्कृति के लिए व्यापक साहित्यिक ज्ञान भी उसी हद तक ज़रूरी है । उपाय के विवेचन में वही युक्ति है, जो राजनीतिक कार्यक्रम को क्रियात्मक रूप देती है । एक साहित्यिक जब राजनीति को साहित्य से अधिक महत्व देता है, तब वह साहित्य की यथार्थ मर्यादा अपनी एकदेशीय भावना के कारण घटा देता है, जो उन्नति और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए शरीर के तमाम अंगों की पुष्टि की तरह समभाव से आवश्यक है ।
राजनीति में उन्नति-क्रम के जो विचार गणित के अनुसार प्रत्येक दशा की गणना कर संपत्तिवाद के क़ायदे से कल्पना द्वारा देश का परिष्कृत रूप खींचते हुए चलते हैं, वही साहित्य में प्रत्येक व्यक्ति के इच्छित विकास को निर्बंध कर उनकी बहुमुखी उच्चाभिलाषाओं को पूर्णता तक ले चलते हुए समष्टिगत पूर्णता या बाह्य स्वातंत्र्य सिद्ध करते हैं।
अधिकांश सम्मान्य नेताओं की उक्ति है, पहले राज्य, फिर सुधार, व्यवस्थाएँ, शिक्षा आदि। मनुष्य जब अपनी ही सत्ता पर ज़ोर देकर संसार की बिगड़ी हुई दशा के सुधार के लिए कमर कस लेता है, तब वह प्राय: सोऽहम् बन जाता है, प्रकृति के विरोधी गुणों, दुनिया की अड़चनों तथा मनुष्यों की स्वभाव-प्रियता को एक ही छलाँग से पार कर जाता है। समष्टि के मन को यंत्र तुल्य समझकर अपनी इच्छानुसार उसका संचालन करता है। इसी जगह एक सच्चे नेता से एक सच्चे साहित्यिक का मतभेद है। साहित्यिक मनुष्य की प्रकृति को ही श्रेय देता है। उसके विचार से हर मनुष्य जब अपने ही प्रिय मार्ग से चलकर अपनी स्वाभाविक वृत्ति को कला-शिक्षा के भीतर से अधिक मार्जित कर लेगा, और इस तरह देश में अधिकाधिक कृतिकार पैदा होंगे, तब सामूहिक उन्नति के साथ-ही-साथ काम्य स्वतंत्रता आप-ही-आप प्राप्त होगी, जैसे युवकों को प्रेम की भावना आप ही आप प्राप्त होती है, यौवन की एक परिणति की तरह।
संपत्ति-शास्त्र और गणित-शास्त्र कभी ईश्वर की परवा नहीं करते। उनके आधार पर चलने वाले नेता भी अदेख शक्ति या अज्ञात रहस्यों पर विश्वास करना अपने को पंगु बनाना समझते हैं, और उनके लिए यह स्वाभाविक है भी, जब संपत्ति और गणित के साथ देश की मिट्टी में उन्हें जड़-ही-जड़ मिलता है, और उनकी स्वतंत्रता भी बहुत कुछ जड़ स्वतंत्रता है। साहित्यिक के प्रधान साधन हैं सत् चित् और आनंद। उसका लक्ष्य है अस्ति, भाति और प्रिय पर उसकी स्वतंत्रता इनकी स्फूर्ति से व्यक्ति के साथ समष्टि के भीतर से आप निकलती है।
साहित्य के व्यापक अंगों में राजनीति भी उसका एक अंग है। अतएव राजनीति की पुष्टि भी वह चाहता है। पर जो लोग राजनीतिक क्षेत्र से यह प्रचार करते हैं कि पहले अधिकार तब सुधार, उनके इस गुरु प्रभाव से वह दबना नहीं चाहता, कारण, यह व्यक्तिमुख की उक्ति उसकी दृष्टि में ‘पहले मुर्गी, फिर अंडा या पहले अंडा तब मुर्गी’ प्रश्न की तरह रहस्यमयी तथा जटिल है। वह केवल बहिर्जगत् को अंतर्जगत् के साथ मिलाता है। उदाहरण के लिए भारत का ही बाहरी संसार लिया जाए। साहित्यिक के कथन के अनुसार भारतीयों की भीतरी भावनाओं का ही बाहर यह विवादग्रस्त भयंकर रूप है। जिस बिगाड़ का अंकुर भीतर हो, उसका बाहरी सुधार बाहरी ही है, गंदगी पर इत्र का छिड़काव। इस तरह विवाद व्याधि के प्रशमन की आशा नहीं। दूसरे जो रोग भीतर हैं, जड़ प्राप्ति द्वारा, रुपये-पैसे या ज़मीन से उसका निराकरण हो भी नहीं सकता। मानसिक रोग मानसिक सुधार से ही हट सकता है। साहित्य की व्यापक महत्ता यहीं सिद्ध होती है।
जीवन के साथ राजनीति का नहीं, साहित्य का संबंध है। संस्कृत जीवन-कुम्हार की बनाई मिट्टी है, जिससे इच्छानुसार हर तरह के उपयोगी बर्तन गढ़े जा सकते हैं, जिसकी प्राप्ति के लिए हम प्राय: एक दूसरा तरीक़ा अख्तियार कर बैठते हैं, वह, साहित्य के भीतर से अध्यवसाय के साथ काम करने पर, अपनी परिणति आप प्राप्त करेगा।
इस समय देश में जितने प्रकार की विभिन्न भावनाएँ हिंदू मुसलमान, ईसाई आदि-आदि की जातीय रेखाओं से चक्कर काटती हुई गंगासागर, मक्षा और जरूसलेम की तरफ़ चलती रहती हैं, जिनसे कभी एकता का सूत्र टूटता है, कभी घोर शत्रुता बन जाती है। उनके इन दुष्कृत्यों का सुधार भी साहित्य में है, और उसी पर अमल करना हमारे इस समय के साहित्य के लिये नवीन कार्य, नई स्फूर्ति भरनेवाला, नया जीवन फूँकनेवाला है। साहित्य में बहिर्जगत्-संबंधी इतनी बड़ी भावना भरनी चाहिए, जिसके प्रसार में केवल मक्का और जरूसलम ही नहीं, किंतु संपूर्ण पृथ्वी आ जाए। यदि हद गंगासागर तक रही, तो कुछ जन-समूह में मक्के का खिंचाव जरूर होगा, या बुद्धदेव की तरह वेद भगवान् के विरोधी घर ही में पैदा होंगे। पर मन से यदि ये जड़-संयोग ही ग़ायब कर दिए जा सकें, तो तमाम दुनिया के तीर्थ होने में संदेह भी न रह जाए। यह भावना साहित्य की सब शाखाओं, सब अंगों के लिए हो और वैसे ही साहित्य की सृष्टि।
यह साहित्यिक रंग यहीं का है। काल-क्रम से अब हम लोग उस रंग से खींचे हुए चित्रों से इतने प्रभावित हैं कि उस रंग की याद ही नहीं, न उस रंग के चित्र से अलग होने की कल्पना कर सकते हैं, और इसलिए पूर्ण मौलिक बन भी नहीं पाते, न उससे समयानुकूल ऐसे चित्र खींच सकते हैं, जो समष्टिगत मन की शुद्धि के कारण हों।
राजनीति में जाति-पाँति-रहित एक व्यापक विचार का ही फल है कि एक ही वक़्त तमाम देश के भिन्न-भिन्न वर्गों के लोग समस्वर से बोलने और एक राह से गुज़रने लगते हैं। उनमें जितने अंशों में व्यक्तिगत रूप से सीमित विचार रहते हैं, उतने ही अंशों में वे एक दूसरे से अलग हैं, इसलिए कमज़ोर। साहित्य यह काम और ख़ूबी से कर सकता है, जब वह किसी भी सीमित भावना पर ठहरा न हो। जब हर व्यक्ति हर व्यक्ति को अपनी अविभाजित भावना से देखेगा, तब विरोध में खंड-क्रिया होगी ही नहीं। यही आधुनिक साहित्य का ध्येय है। इसके फल की कल्पना सहज है।
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